नई फसल के आगमन का उत्सव है,सगगुम पाबुन
प्रमोद मोहबिया देवरी
एक दूसरे के प्रति वैमनस्य, लड़ाई–झगड़े या गिले–शिकवे मिटाने का त्योहार है शिमगा सगगुम
पूरे भारत में मनाया जाने वाले पर्व होली का मूल स्वरुप और वैज्ञानिक अवधारणा यदि जानना समझना है तो हमें इसके उस प्राचीन स्वरूप को जानना होगा जिसकी अवधारणा यहां कि प्राचीन जनजातियों द्वारा बनाया गया था।
महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और तेलंगाना के कुछ हिस्से के आदिवासी लोग होली को शिमगा सगगुम पाबुन कहते हैं जो वास्तव में एक शुद्ध कृषि प्रधान त्यौहार है, जिसके पीछे एक विज्ञान भी है
प्राचीन भारत में पशुपालन और कृषि कार्य जीवन का आधार था।
आज भी भारत की अर्थव्यवस्था में यह सबसे महत्वपूर्ण अवयव है। इसका असर समाज में भी दिखता है। प्रमाण यह कि तमाम पर्व-त्यौहारों की पृष्ठभूमि कृषि और पशुपालन से जुड़ी है। हालांकि विकास के क्रम में इन त्यौहारों में कई विकृतियाँ आने लगी, जिसके चलते बहुत सारे अप्राकृतिक कथाएँ, किस्से-कहानियाँ जुड़ती गईं। फलस्वरूप वास्तविक त्यौहारों का स्वरूप बदलता गया।
लेकिन आज भी मध्य भारत के कुछ हिस्से में रहने वाले आदिवासी अपने पारंपरिक त्यौहारों को सांस्कृतिक प्रदूषण से बचाए रखने में कामयाब हैं।
आदिवासी समाज प्राचीन जीववादी व्यवस्था में विश्वास रखते हैं।
यही कारण है कि वे अपने आसपास के सभी जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों में जीवन देखते हैं। उनके लिए ये सभी जीव आदर सम्मान के पात्र भी हैं।
आमतौर पर एक वर्ष में २ तरह के फसलों की खेती होती हैं , रबी और खरीफ।
गोंडी भाषा में रबी को उन्हारी और खरीफ को सियारी कहा जाता है।
इन दोनों प्रकार की खेती के बीच करीब तीन महीने का अंतर होता है।
लिहाजा इस अवधि में शादी-विवाह व अन्य घरेलू कार्य निपटाए जाते हैं ।
सियारी यानी खरीफ की फसल आधारित त्यौहार आषाढ़ महीने से प्रारंभ होकर कार्तिक महीने तक मनाए जाते हैं, जिनमें जवारा, आखाड़ी, बिदरी, जीवती, पोला, पूनल वंजी, सजोरी इत्यादि पर्व शामिल हैं।
इसी प्रकार अगहन से फाल्गुन मास तक उन्हारी यानी रबी फसल आधारित त्यौहार मनाए जाते हैं।
इनमें मड़ई, छेर छेरता, सय मुठोली, शंभू शेक नरका, शिमगा सगगुम, खंडेरा गोंगोंं, गढ़ गोंगोंं इत्यादि शामिल हैं।
गोंडी भाषा में वर्ष के अंतिम महीने फाल्गुन को “पांडामान” कहते हैं।
“पांडामान” में रबी की फसल पककर तैयार होने लगती है। इनमें गेहूं और दलहन की फसलें शामिल होती हैं।
नई फसल को खेत से घर लाने के पहले खास तैयारी के तहत खलिहान व अनाज रखने के लिए भंडारगृहों का इंतजाम किया जाता है। इस बीच माघ मास की पूर्णिमा और फाल्गुन की पूर्णिमा तक अनेक त्यौहार मनाए जाते है, शिमगा सगगुम प्रमुख हैं।
फाल्गुन मास के पूर्णिमा के दिन “जूनल सावरी” (पुराने वर्ष) और “पूनल सावरी” (नए वर्ष) का सगुम का दिन होता है।
इस दिन वर्ष के अंतिम माह फाल्गुन की पूर्णिमा और नए वर्ष के प्रथम दिन चैत्र माह के परेवा का संगम होता है।
उसी दिन “शिमगा सगगुम” मनाते है।
शेष भारत में भी होली का त्यौहार इसी दिन मनाया जाता है।
आदिवासी परंपरा में शिमगा सगगुम कोई एक त्यौहार नहीं, बल्कि कई पर्वों का समुच्चय है, जो १५ दिनों तक चलता है।
इसमें मुख्य तौर पर चार पर्व शामिल हैं –
१) रोन रजगा गोंगोंं पाबुन (घर की साफ सफाई का पर्व )
२) अद्दीटिया पेन गोंगोंं (नई आग के स्वागत का पर्व
३) शिमगा सगगुम पाबुन (होली मिलन पर्व )
४)उन्हारी नवा खवाई पाबुन (रबी की फसल का नया खाना पर्व)
१) रोन रजगा गोंगों पाबुन
इस पर्व के पीछे कोइतुर परंपरा में वैज्ञानिक चिंतन यह है कि बरसात और जाड़े के बाद घर के आंतरिक हिस्सों में नमी बनी रहती है, जिससे अनेक हानिकारक परजीवी मानव शरीर के साथ-साथ कपड़ों और बिस्तरों में पनपने लगते हैं। स्वच्छता के लिहाज से यह पर्व मनाया जाता है, जिसमें रजगा यानी गंदगी,/ मैल व कूड़ा घर से बाहर निकाला जाता है।
२) अद्दीटिया पेन गोंगोंं
आग से होने वाले बुरे प्रभावों से बचाने के लिए और अगले वर्ष के लिए नयी आग पैदा करने के लिए ही आदिवासियों द्वारा अद्दीटिया पेन गोंगों (अग्नि देव पूजा) किया जाता है।
फाल्गुन पूर्णिमा की मध्य रात्रि से पहले सभी आदिवासी परिवार खाना बनाकर घर की सभी प्रकार की आग बुझा देते हैं।
चूंकि यह वर्ष का अंतिम दिन होता है, इसलिए अब नए वर्ष में नई आग चाहिए होगी।
आग बुझाने के साथ साथ पूरे घर का सारा कूड़ा, पुराने कपड़े-लत्ते, घर की सफाई से निकले कचरे (रोन रजगा) को निकाल कर गाँव के बाहर करते हैं और नार भुमका रोन रजगा को विदाई सम्पन्न करवाते हैं।
गाँव के सभी लोग एक साथ बैठकर अद्दीटिया पेन का सामूहिक हेत (आराधना) करते हैं और उनसे प्रार्थना करते हैं कि आने वाले समय में वे हमारे घर, पशुधन, फसल और जंगल को नुकसान न पहुंचाएँ और हमारे घरों में हमेशा विद्यमान रहें।
मध्य रात्रि में इस प्रार्थना सभा के बाद पुजारी उस आग के ढेर से सभी को आग का छोटा सा हिस्सा देता है, जिसे लोग अपने घरों में ले आते हैं और उसे सुरक्षित रखते हैं।
लोग यह कोशिश करते हैं कि यह आग साल भर न बुझे।
आग बुझने की स्थिति में उन्हें किसी अन्य घर से मांगने जाना पड़ेगा, जिसे अच्छा नहीं माना जाता है।
प्राचीन समय में इस प्रक्रिया का बड़ा महत्व था, क्योंकि तब लोगों के पास माचिस, लाइटर या आग जलाने के अन्य तरीके नहीं उपलब्ध थे।
३) शिमगा सगगुम पाबुन
पुजारी द्वारा अद्दीटिया पेन गोंगों सम्पन्न करवाने के पश्चात सभी लोग इस आग के ढेर के चारों तरफ दायें से बाएँ (एंटी क्लॉक वाइज़) परिक्रमा करते हैं। इसी आग में लोग नए उन्हारी फसल (जौ, गेंहूं, मटर, चना इत्यादि ) के पौधों सहित गोबर से बनाए गए छल्ले (बल्ला) में डालकर उसे भूनते हैं और उसका स्वाद लेते हैं, जो उन्हारी की नवा खवाई का प्रतीक है।
कहीं-कहीं लोग इसी अग्नि की परिक्रमा करते हुए और गीत गाते हुए सामूहिक नृत्य भी करते हैं। आग के बुझे हुए राख़ से लोग एक-दूसरे को टीका लगाते हुए सेवा जोहार करते हैं।
अंत में सभी लोग अद्दीटिया पेन गोंगों द्वारा तैयार आग लेकर अपने-अपने घरों को वापस लौट जाते हैं।
४) उन्हारी नवा खवाई पाबुन
आदिवासी संस्कृति में प्रत्येक फसल के पकने पर उपयोग के पहले सर्वप्रथम उसे खेती से जुड़े पेन-पुरखों को समर्पित करते है। यह होली का पर्व उन्हारी की नई फसल के आगमन के स्वागत और उसके नवा खवाई पर्व का प्रतीक है।
इस फसल में गेंहू, जौ, चना, मटर, अलसी, सरसों आदि शामिल होते हैं।
अपने पेन-पुरखों को पहले अर्पण करने के बाद वे स्वयं ग्रहण करते हैं। इस तरह यह उन्हारी की नवा खवाई का त्यौहार है।
इस अवसर पर गोटुल (शिक्षा के केंद्र) में भी शिष्यों को उनके मुठवा (गुरु) इन फसलों के चक्र को समझाते हैं ताकि वे आगे चलकर अच्छी फसल उगा सकें और खेती को अच्छे से अपनी आजीविका का साधन बना सके।
इस अवसर पर गोटुल (शिक्षा के केंद्र) में भी शिष्यों को उनके मुठवा (गुरु) इन फसलों के चक्र को समझाते हैं ताकि वे आगे चलकर अच्छी फसल उगा सकें और खेती को अच्छे से अपनी आजीविका का साधन बना सके।
आदिवासी समाज द्वारा शिमगा सगगुम पाबुन त्योहार नई फसल के आगमन का उत्सव है।
इस दिन महुआ और नए अनाज से बने व्यंजनों का विशेष महत्त्व होता है।
आदिवासी समाज में महुआ पवित्र फूल माना जाता हैं। होली जलाने के अगले दिन सुबह स्त्रियाँ नई आग से नए पकवान और मिठाईयां बनाती हैं। लेकिन वक़्त के साथ पकवानों पर बाजारवाद हावी हो गया है और अब बाहरी खाने-पीने की चीजों ने पारंपरिक व्यंजनों का स्थान ले लिया है।
शिमगा सगगुम में चारों तरफ उत्सव का माहौल होता है। लोग फाग गाते हैं, जिसमें वे अच्छी फसल, फसलों को आग से बचाने, प्रकृतिक आपदा से बचाने की प्रार्थना करते हैं। गीत के माध्यम से आने वाली पीढ़ियों को सावधानियों की शिक्षा दी जाती हैं।
इस उत्सव में पूरा आदिवासी समाज शामिल होता है।
मृदंड ढ़ोल, झांझ खझड़ी, हुड़ुक, मजीरा इत्यादि बजा कर ऊंची आवाज में पारंपरिक गीत गाए जाते हैं, जिन्हे फाग कहते हैं। साथ में सभी मिलकर सामूहिक नृत्य भी करते हैं।
इस दौरान रंगों का उपयोग भी किया जाता है क्योंकि जीवन में रंगों का बड़ा महत्त्व है। पहले लोग फूल-पत्तियों और वनस्पतियों की जड़ों और बीजों से शुद्ध देशी रंग तैयार करते थे। आजकल प्राकृतिक रंगों के बजाय बाज़ारों में हानिकारक रसायनों से बने रंगों का बोलबाला है।
होली के दूसरे दिन पूरा समाज एक-दूसरे को रंग गुलाल लगाकर गले मिलता है और इसी कारण इस त्यौहार को शिमगा सगगुम कहते हैं।
शिमगा सगगुम साल के अंत में एक दूसरे के प्रति वैमनस्य, लड़ाई-झगड़े या गिले-शिकवे मिटाने का अवसर भी है।
सभी मिलकर नए साल में नए जोश नए उमंग से प्यार से रहने का संकल्प भी लेते हैं। आदिवासियों द्वारा सदियों से संरक्षित इस पर्व में प्रकृति और स्त्री का सम्मान के अलावा सभी की सुरक्षा, खुशहाली, अच्छे स्वास्थ्य और समृद्धि की कामना शामिल है।
होली से जूडी प्राचीन आदिवासी प्रथाएं, मान्यताएं वर्तमान की होली के आधुनिक स्वरूप से बिल्कुल अलग है।